
क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी जेब में खनकने वाले एक रुपये के छोटे से सिक्के को बनाने में सरकार का कितना खर्च आता होगा? यह सवाल जितना सीधा लगता है, इसका जवाब उतना ही चौंकाने वाला है। अक्सर लोग यह मानकर चलते हैं कि एक रुपये का सिक्का बनाने में एक रुपये से कम ही खर्च आता होगा, तभी तो सरकार उसे जारी करती है। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा 2018 में एक RTI (सूचना का अधिकार) के जवाब में दी गई जानकारी के अनुसार, एक रुपये के सिक्के को बनाने में उसकी अंकित कीमत से अधिक लागत आती है। जी हां, एक रुपये का सिक्का बनाने में भारत सरकार को लगभग ₹1.11 खर्च करने पड़ते हैं, जिसका सीधा मतलब है कि हर एक रुपये के सिक्के पर सरकार को लगभग 11 पैसे का नुकसान होता है।
यह जानकारी अपने आप में हैरान करने वाली है। जब सरकार को हर एक सिक्के पर घाटा हो रहा है, तो फिर इन सिक्कों का निर्माण क्यों जारी रखा जाता है? इस प्रश्न का उत्तर भारतीय अर्थव्यवस्था और मौद्रिक प्रणाली की जटिलताओं में छिपा है। सिक्के केवल एक धातु के टुकड़े नहीं होते, बल्कि वे दैनिक जीवन के लेनदेन का एक अनिवार्य हिस्सा होते हैं। इस लेख में हम एक रुपये के सिक्के की निर्माण लागत के विभिन्न पहलुओं, इसमें शामिल कारकों, इसके आर्थिक प्रभावों और भारत सरकार द्वारा इसे जारी रखने के कारणों का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।
एक रुपये के सिक्के की चौंकाने वाली लागत
जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है, आधिकारिक जानकारी के अनुसार, एक रुपये के सिक्के की निर्माण लागत ₹1.11 है। यह केवल एक रुपये के सिक्के की कहानी नहीं है; अन्य छोटे मूल्यवर्ग के सिक्कों की स्थिति भी ऐसी ही है। उदाहरण के लिए, दो रुपये के सिक्के को बनाने में लगभग ₹1.28, पांच रुपये के सिक्के को बनाने में लगभग ₹3.69, और दस रुपये के सिक्के को बनाने में लगभग ₹5.54 खर्च होते हैं। ये आंकड़े स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि छोटे मूल्यवर्ग के सिक्कों का निर्माण अक्सर सरकार के लिए घाटे का सौदा होता है।
यह स्थिति किसी एक देश तक सीमित नहीं है। दुनिया के कई देशों में छोटे मूल्यवर्ग के सिक्कों की निर्माण लागत उनके अंकित मूल्य से अधिक होती है। इसके पीछे कई कारण होते हैं, जिनमें धातु की कीमतें, निर्माण प्रक्रिया की जटिलता और वैश्विक आर्थिक स्थितियां शामिल हैं।
लागत के पीछे के कारक: क्या बनाता है एक सिक्के को महंगा?
एक सिक्के की निर्माण लागत कई जटिल कारकों का परिणाम होती है। इसे केवल धातु की कीमत तक सीमित करना एक गलत धारणा होगी। आइए इन कारकों को विस्तार से समझते हैं:
1. कच्चा माल (धातु)
एक रुपये के सिक्के का प्रमुख घटक धातु है। वर्तमान में, भारतीय एक रुपये का सिक्का फेरिटिक स्टेनलेस स्टील (Ferritic Stainless Steel) से बना होता है, जिसमें लगभग 17% क्रोमियम और 83% आयरन (लोहा) होता है। ये धातुएं मजबूत और टिकाऊ होती हैं, जो सिक्के को लंबे समय तक चलने में मदद करती हैं। हालांकि, इन धातुओं की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उतार-चढ़ाव के अधीन होती हैं।
धातुओं का चुनाव: पुराने समय में सिक्के सोने, चांदी और तांबे जैसी महंगी धातुओं से बनाए जाते थे। लेकिन बढ़ती कीमतों और धातु के मूल्य को सिक्के के अंकित मूल्य से कम रखने की आवश्यकता के कारण, सस्ती और अधिक टिकाऊ मिश्र धातुओं का उपयोग किया जाने लगा। स्टेनलेस स्टील एक ऐसा ही विकल्प है जो जंग प्रतिरोधी और मजबूत होता है।
वैश्विक धातु बाजार: क्रोमियम और आयरन जैसे धातुओं की कीमतें वैश्विक मांग और आपूर्ति, खनन लागत, भू-राजनीतिक घटनाओं और मुद्रास्फीति से प्रभावित होती हैं। यदि इन धातुओं की कीमतें बढ़ती हैं, तो सीधे तौर पर सिक्के की निर्माण लागत भी बढ़ जाती है।
आयात पर निर्भरता: कुछ धातुएं या उनके अयस्क भारत में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो सकते हैं, जिससे उनका आयात करना पड़ता है। आयात से जुड़ी लागतें, जैसे परिवहन, कस्टम ड्यूटी और विदेशी मुद्रा विनिमय दरें, भी अंतिम लागत में जुड़ जाती हैं।
2. विनिर्माण प्रक्रिया (टकसाल की लागत)
सिक्कों का निर्माण एक जटिल औद्योगिक प्रक्रिया है जिसे “मिंटिंग” कहा जाता है। यह प्रक्रिया भारत सरकार की टकसालों (Mint) में होती है। भारत में चार प्रमुख टकसालें हैं:
मुंबई (महाराष्ट्र)
अलीपुर (कोलकाता, पश्चिम बंगाल)
सैफाबाद (हैदराबाद, तेलंगाना)
नोएडा (उत्तर प्रदेश)
इन टकसालों में सिक्कों के निर्माण में कई चरण शामिल होते हैं, जिनमें से प्रत्येक की अपनी लागत होती है:
धातु का शोधन और मिश्र धातु बनाना: धातुओं को सही अनुपात में मिलाकर मिश्र धातु तैयार करना।
ब्लैंक बनाना: धातु की चादरों को आवश्यक मोटाई में रोल करना और फिर उनसे गोल ‘ब्लैंक’ (सिक्के के आकार के खाली टुकड़े) काटना।
सिक्कों की ढलाई (स्ट्राइकिंग): ब्लैंक को उच्च दबाव वाली मशीनों में डाला जाता है, जहां दोनों तरफ सिक्कों पर डिजाइन (जैसे अशोक स्तंभ, मूल्यवर्ग, वर्ष) और किनारे पर रिम अंकित किए जाते हैं। यह प्रक्रिया बेहद सटीक और उच्च गति वाली होती है।
गुणवत्ता नियंत्रण: निर्मित सिक्कों की गुणवत्ता, वजन, आकार और डिजाइन की जांच की जाती है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे निर्धारित मानकों को पूरा करते हैं।
पैकेजिंग और वितरण: तैयार सिक्कों को पैक करके भारतीय रिजर्व बैंक के गोदामों और फिर बैंकों तक पहुंचाया जाता है।
इन सभी चरणों में लगने वाली बिजली, मशीनों का रखरखाव, टूट-फूट, उपकरण का मूल्यह्रास (depreciation) और सुरक्षा व्यवस्था की लागतें महत्वपूर्ण होती हैं।
3. श्रम लागत
टकसालों में काम करने वाले कर्मचारियों का वेतन, भत्ते और अन्य लाभ भी सिक्के की निर्माण लागत में शामिल होते हैं। इसमें इंजीनियर, तकनीशियन, सुरक्षाकर्मी और अन्य प्रशासनिक कर्मचारी शामिल होते हैं। यह एक बड़ा स्थिर व्यय होता है।
4. प्रशासनिक और ओवरहेड लागत
इसमें टकसाल के प्रबंधन, अनुसंधान और विकास, नए सिक्कों के डिजाइन और प्रौद्योगिकी उन्नयन से जुड़ी लागतें शामिल होती हैं। इसके अलावा, अप्रत्यक्ष लागतें जैसे बीमा, कर और नियामक अनुपालन की लागतें भी होती हैं।
5. सुरक्षा लागत
मुद्रा एक संवेदनशील वस्तु है, और इसके निर्माण से लेकर वितरण तक उच्च स्तरीय सुरक्षा की आवश्यकता होती है। टकसालों और परिवहन के दौरान सुरक्षाकर्मियों, निगरानी प्रणालियों और अन्य सुरक्षा उपायों पर भारी खर्च होता है, जो अंततः सिक्के की लागत में जुड़ जाता है।
घाटे के बावजूद सिक्कों का निर्माण क्यों?
जब एक रुपये के सिक्के को बनाने में 11 पैसे का घाटा होता है, तो सवाल उठता है कि सरकार इसे बनाना क्यों जारी रखती है। इसके कई महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक कारण हैं:
1. टिकाऊपन (Durability)
सिक्के नोटों की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ होते हैं। एक बैंकनोट कुछ महीनों या अधिकतम कुछ वर्षों तक ही चल पाता है, जबकि एक सिक्का दशकों तक प्रचलन में रह सकता है। नोटों के बार-बार मुद्रण की आवश्यकता होती है, जिससे उनकी जीवनकाल लागत बढ़ जाती है। सिक्कों की लंबी उम्र का मतलब है कि उन्हें बदलने की आवश्यकता कम होती है, जिससे लंबी अवधि में लागत कम हो सकती है, भले ही प्रारंभिक निर्माण लागत अधिक हो।
2. लेनदेन की आवश्यकता (Necessity for Transactions)
छोटे मूल्यवर्ग के सिक्के दैनिक जीवन के लेनदेन के लिए अपरिहार्य हैं। चाहे किराने की दुकान हो, सार्वजनिक परिवहन हो, या छोटे फुटकर विक्रेता हों, एक रुपये के सिक्के का उपयोग हर जगह होता है। इन्हें चलन से बाहर करने से आम जनता, विशेषकर छोटे व्यवसायों और ग्रामीण क्षेत्रों में भारी असुविधा होगी। ये हमारी अर्थव्यवस्था की नींव हैं।
3. मुद्रास्फीति का प्रभाव (Impact of Inflation)
मुद्रास्फीति, यानी समय के साथ वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में वृद्धि, सिक्के की निर्माण लागत को भी प्रभावित करती है। कच्चे माल की कीमतें, श्रम लागत और ऊर्जा की लागत लगातार बढ़ रही है। यदि धातु की कीमतें बढ़ती हैं, तो सिक्के बनाने का खर्च भी बढ़ जाता है। हालांकि, सरकार सिक्कों का अंकित मूल्य नहीं बढ़ा सकती, क्योंकि इससे मुद्रास्फीति और बढ़ सकती है और जनता को भ्रम हो सकता है। इसलिए, वास्तविक लागत और अंकित मूल्य के बीच का अंतर बढ़ता रहता है।
4. सीग्नियोरेज (Seigniorage) और इसका उलटा
आमतौर पर, जब सरकार मुद्रा जारी करती है, तो उसे ‘सीग्नियोरेज’ नामक लाभ होता है। यह मुद्रा के अंकित मूल्य और उसके उत्पादन की लागत के बीच का अंतर होता है। उदाहरण के लिए, यदि एक 500 रुपये के नोट को छापने में ₹2.29 लगते हैं, तो सरकार को प्रति नोट ₹497.71 का सीग्नियोरेज प्राप्त होता है। हालांकि, एक रुपये के सिक्के के मामले में, यह सीग्नियोरेज नकारात्मक है। इसका मतलब है कि सरकार को सिक्का जारी करने पर घाटा हो रहा है। इसके बावजूद, अर्थव्यवस्था में सुचारू लेनदेन सुनिश्चित करने के लिए इन सिक्कों को जारी रखना आवश्यक है।
5. सामाजिक स्वीकार्यता और उपयोगिता
छोटे मूल्यवर्ग के सिक्के आम जनता के बीच गहराई से स्वीकार्य हैं और उनका व्यापक रूप से उपयोग होता है। इन्हें बंद करने से एक बड़ा शून्य पैदा हो जाएगा, जिसे भरने के लिए लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। यह विशेष रूप से उन लोगों के लिए मुश्किल होगा जो डिजिटल भुगतान या बड़े मूल्यवर्ग के नोटों तक पहुंच नहीं रखते हैं।
भारतीय टकसालें और उनकी भूमिका
भारत में सिक्कों का निर्माण चार सरकारी टकसालों में होता है, जो वित्त मंत्रालय के अधीन सिक्योरिटी प्रिंटिंग एंड मिंटिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (SPMCIL) का हिस्सा हैं:
इंडिया गवर्नमेंट मिंट, मुंबई: सबसे पुरानी टकसालों में से एक।
इंडिया गवर्नमेंट मिंट, कोलकाता (अलीपुर): पूर्वी भारत की जरूरतों को पूरा करती है।
इंडिया गवर्नमेंट मिंट, हैदराबाद (सैफाबाद और चेरियापल्ली): दक्षिणी भारत के लिए महत्वपूर्ण।
इंडिया गवर्नमेंट मिंट, नोएडा: उत्तरी भारत की जरूरतों को पूरा करती है।
ये टकसालें न केवल सिक्के बनाती हैं, बल्कि पदक और अन्य स्मारक वस्तुएं भी तैयार करती हैं। प्रत्येक टकसाल के अपने विशिष्ट पहचान चिह्न होते हैं जो सिक्के पर अंकित होते हैं (जैसे मुंबई के लिए हीरा, हैदराबाद के लिए तारा, नोएडा के लिए बिंदु, और कोलकाता के लिए कोई चिह्न नहीं)। यह सुनिश्चित करता है कि सिक्कों की पर्याप्त आपूर्ति हो और वे पूरे देश में समान रूप से वितरित हो सकें।
भविष्य की चुनौतियां और समाधान
एक रुपये के सिक्के की निर्माण लागत में वृद्धि एक सतत चुनौती है। भविष्य में धातुओं की कीमतों में और उतार-चढ़ाव आ सकता है, जिससे लागत और बढ़ सकती है। सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह इन चुनौतियों का सामना करने के लिए रणनीतियों पर विचार करे:
धातु संयोजन में बदलाव: अधिक किफायती और टिकाऊ मिश्र धातुओं पर शोध करना।
उत्पादन दक्षता में सुधार: टकसालों में नई तकनीकों और प्रक्रियाओं को अपनाकर उत्पादन लागत कम करना।
पुनर्चक्रण (Recycling): पुराने सिक्कों को पिघलाकर नए सिक्के बनाने से धातु की लागत कुछ हद तक कम हो सकती है, हालांकि इसमें भी अपनी प्रक्रिया लागतें होती हैं।
डिजिटल भुगतान को बढ़ावा: डिजिटल भुगतान के बढ़ते चलन से छोटे नकद लेनदेन की आवश्यकता कम हो सकती है, जिससे सिक्कों पर दबाव कम हो सकता है। हालांकि, भारत जैसे विशाल और विविध देश में सभी के लिए डिजिटल भुगतान सुलभ बनाना एक बड़ी चुनौती है।
निष्कर्ष
एक रुपये के सिक्के की निर्माण लागत उसके अंकित मूल्य से अधिक होना एक आर्थिक विसंगति लग सकती है, लेकिन यह भारतीय मौद्रिक प्रणाली की एक सच्चाई है। सरकार के लिए यह घाटे का सौदा होने के बावजूद, इन सिक्कों का निरंतर उत्पादन आवश्यक है क्योंकि वे दैनिक लेनदेन के लिए महत्वपूर्ण हैं, टिकाऊ होते हैं, और अर्थव्यवस्था की समग्र स्थिरता और सुचारू संचालन में योगदान करते हैं। यह एक ऐसा “अदृश्य निवेश” है जो अर्थव्यवस्था के सुचारू प्रवाह और आम जनता की सुविधा के लिए महत्वपूर्ण है। भले ही हर एक रुपये का सिक्का जेब में 11 पैसे का सरकारी घाटा लेकर आता हो, लेकिन इसकी उपयोगिता और आवश्यकता इसे अर्थव्यवस्था का एक अपरिहार्य हिस्सा बनाती है। यह दर्शाता है कि मुद्रा का मूल्य केवल उसकी अंकित कीमत में नहीं होता, बल्कि उसकी उपयोगिता और अर्थव्यवस्था में उसकी भूमिका में भी होता है।